Monday 5 June 2017

शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह..


महाराजा रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh) का नाम भारतीय इतिहास के सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है। पंजाब के इस महावीर नें अपने साहस और वीरता के दम पर कई भीषण युद्ध जीते थे। रणजीत सिंह के पिता सुकरचकिया मिसल के मुखिया थे। बचपन में रणजीत सिंह चेचक की बीमारी से ग्रस्त हो गये थे, उसी कारण उनकी बायीं आँख दृष्टिहीन हो गयी थी।

किशोरावस्था से ही चुनौतीयों का सामना करते आये रणजीत सिंह जब केवल 12 वर्ष के थे तब उनके पिताजी की मृत्यु (वर्ष 1792) हो गयी थी। खेलने -कूदने कीउम्र में ही नन्हें रणजीत सिंह को मिसल का सरदार बना दिया गया था, और उस ज़िम्मेदारी को उन्होने बखूबी निभाया।

महाराजा रणजीत सिंह स्वभाव से अत्यंत सरल व्यक्ति थे। महाराजा की उपाधि प्राप्त कर लेने के बाद भी रणजीत सिंह अपने दरबारियों के साथ भूमि पर बिराजमान होते थे। वह अपने उदार स्वभाव, न्यायप्रियता ओर समस्त धर्मों के प्रति समानता रखने की उच्च भावना के लिए प्रसिद्द थे। अपनी प्रजा के दुखों और तकलीफों को दूर करने के लिए वह हमेशा कार्यरत रहते थे। अपनी प्रजा की आर्थिक समृद्धि और उनकी रक्षा करना ही मानो उनका धर्म था।

महाराजा रणजीत सिंह नें लगभग 40 वर्ष शासन किया। अपने राज्य को उन्होने इस कदर शक्तिशाली और समृद्ध बनाया था कि उनके जीते जी  किसी आक्रमणकारी सेना की उनके साम्राज्य की और आँख उठा नें की हिम्मत नहीं होती थी।

महाराजा रणजीत सिंह  के जीवन से जुड़े कुछ रोचक तथ्य /  Maharaja Ranjit Singh Interesting Facts in Hindi 

महा सिंह और राज कौर के पुत्र रणजीत सिंह दस साल की उम्र से ही घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, एवं अन्य युद्ध कौशल में पारंगत हो गये। नन्ही उम्र में ही रणजीत सिंह अपने पिता महा सिंह के साथ अलग-अलग सैनिक अभियानों में जाने लगे थे।
महाराजा रणजीत सिंह को कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी, वह अनपढ़ थे।
अपने पराक्रम से विरोधियों को धूल चटा देने वाले रणजीत सिंह पर 13 साल की कोमल आयु में प्राण घातक हमला हुआ था। हमला करने वाले हशमत खां को किशोर रणजीत सिंह नें खुद ही मौत की नींद सुला दिया।
बाल्यकाल में चेचक रोग की पीड़ा, एक आँख गवाना, कम उम्र में पिता की मृत्यु का दुख, अचानक आया कार्यभार का बोझ, खुद पर हत्या का प्रयास इन सब कठिन प्रसंगों नें रणजीत सिंह को किसी मज़बूत फौलाद में तबदील कर दिया।

Maharaja Ranjit Singh का विवाह 16 वर्ष की आयु में महतबा कौर से हुआ था। उनकी सास का नाम सदा कौर था। सदा कौर की सलाह और प्रोत्साहन पा कर रणजीत सिंह नें रामगदिया पर आक्रमण किया था, परंतु उस युद्ध में वह सफलता प्राप्त नहीं कर सके थे।
उनके राज में कभी किसी अपराधी को मृत्यु दंड नहीं दिया गया था। रणजीत सिंह बड़े ही उदारवादी राजा थे, किसी राज्य को जीत कर भी वह अपने शत्रु को बदले में कुछ ना कुछ जागीर दे दिया करते थे ताकि वह अपना जीवन निर्वाह कर सके।
वो महाराजा रणजीत सिंह ही थे जिन्होंने हरमंदिर साहिब यानि गोल्डन टेम्पल का जीर्णोधार करवाया था।
उन्होंने कई शादियाँ की, कुछ लोग मानते हैं कि उनकी 20 शादियाँ हुई थीं।
महाराजा रणजीत सिंह न गौ मांस खाते थे ना ही अपने दरबारियों को इसकी आज्ञा देते थे।

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लाहौर पर विजय
1798 ई. – 1799 ई  में अफगानिस्तान के शासक जमानशाह ने लाहौर पर आक्रमण कर दिया और बड़ी आसानी से उस पर अधिकार कर लिया पर अपने सौतेले भाई महमूद के विरोध के कारण जमानशाह को वापस काबुल लौट जाना ना पड़ा था| काबूल लौटते समय उसकी कुछ तोपें  झेलम नदी में गिर पड़ी थीं| रणजीत सिंह ने इन तोपों को नदी से निकलवा कर सुरक्षित काबुल भिजवा दिया | इस बात पर जमानशाह बहुत प्रसन्न हो गये और उन्होने रणजीत सिंह को लाहौर पर अधिकार कर लेने की अनुमति दे दी | इस के बाद तुरंत ही रणजीत सिंह ने लाहौर पर आक्रमण कर दिया और 7 जुलाई 1799 के दिन लाहौर पर आधिपत्य जमा लिया |

पंजाब के भिन्न-भिन्न मिसलों पर जीत हासिल की
ई॰ 1803 में अकालगढ़ पर विजय।
ई॰ 1804 में डांग तथा कसूर पर विजय।
ई॰ 1805 में अमृतसर पर विजय।
ई॰ 1809 में गुजरात पर विजय।
महाराजा रणजीत सिंह नें किया सतलज पार के प्रदेशो को अपने आधीन
ई 1806 में दोलाधी गाँव पर किया कब्जा।
ई॰ 1806 में ही लुधियाना पर जीत हासिल की।
ई॰ 1807 में जीरा बदनी और नारायणगढ़ पर जीत हासिल की।
ई॰ 1807 में ही फिरोज़पुर पर विजय प्राप्त की।



अमृतसर की संधि 
महाराज रणजीत सिंह के सैनिक अभियानों से डर कर सतलज पार बसी हुई सिख रियासतों ने अंग्रेजो से संरक्षण देने की प्रार्थना की थी ताकि वह सब बचे रह सकें| तभी उन रियासतों की प्रार्थना पर गर्वनर जनरल लार्ड मिन्टो ने सर चार्ल्स मेटकाफ को रणजीत सिंह से संधि करने हेतु उनके वहाँ भेजा था| पहले तो रणजीतसिंह संधि प्रस्ताव पर सहमत नही हुए परंतु जब लार्ड मिन्टो ने मेटकाफ के साथ आक्टरलोनी के नेतृत्व में एक विशाल सैनिक टुकड़ी भेजी और उन्होंने अंग्रेज़ सैनिक शक्ति की धमकी दी तब रणजीतसिंह को समय की मांग के आगे झुकना पड़ा था।

अंत में चातुर्यपूर्वक महाराजा रणजीत सिंह नें तारीख 25 अप्रैल 1809 ईस्वी के दिन अंग्रेजो से संधि कर ली। इतिहास में यह संधि अमृतसर की संधि कही जाती है।

कांगड़ा पर विजय (ई॰ 1809)
अमरसिंह थापा नें ई॰ 1809 में कांगड़ा पर आक्रमण कर दिया था। उस समय वहाँ संसारचंद्र राजगद्दी पर थे। मुसीबत के समय उस वक्त संसारचंद्र नें रणजीतसिंह से मदद मांगी, तब उन्होने फौरन उनकी मदद के लिए एक विशाल सेना की रवाना कर दी, सिख सेना को सामने आता देख कर ही अमरसिंह थापा की हिम्मत जवाब दे गयी और वह सेना सहित उल्टे पाँव वहाँ से भाग निकले। इस प्रकार कांगड़ा राज्य पर भी रणजीत सिंह का आधिपत्य हो गया।

मुल्तान पर विजय (ई॰ 1818)
उस समय मुल्तान के शासक मुजफ्फरखा थे उन्होने सिख सेना का वीरतापूर्ण सामना किया था पर अंत में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। महाराजा रणजीत सिंह की और से वह युद्ध मिश्र दीवानचंद और खड्गसिंह नें लड़ा था और मुल्तान पर विजय प्राप्त की थी। इस तरह महाराजा रणजीत सिंह नें ई॰ 1818 में मुल्तान को अपने आधीन कर लिया।

कटक राज्य पर विजय (ई॰ 1813)
वर्ष 1813 में महाराजा रणजीत सिंह ने कूटनीति द्वारा काम लेते हुए कटक राज्य पर भी अधिकार कर लिया था | ऐसा कहा जाता है की उन्होंने कटक राज्य के गर्वनर जहादांद को एक लाख रूपये की राशि भेंट दे कर ई॰ 1813 में कटक पर अधिकार प्राप्त कर लिया था|

कश्मीर पर विजय (ई॰ 1819)
महाराजा रणजीत सिंह नें 1819 ई. में मिश्र दीवानचंद के नेतृत्व मे विशाल सेना कश्मीर की और आक्रमण करने भेजी थी। उस समय कश्मीर में अफगान शासक जब्बार खां का आधिपत्य था। उन्होनें रणजीत सिंह की भेजी हुई सिख सेना का पुरज़ोर मुकाबला किया परन्तु उन्हे पराजय का स्वाद ही चखना पड़ा। अब कश्मीर पर भी रणजीत सिंह का पूर्ण अधिकार हो गया था।

डेराजात की विजय (ई॰ 1820-21)
आगे बढ़ते हुए ई॰ 1820-21 में महाराजा रणजीत सिंह ने क्रमवार डेरागाजी खा, इस्माइलखा और बन्नू पर विजय हासिल कर के अपना अधिकार सिद्ध कर लिया था।

पेशावर की विजय (ई॰ 1823-24)
पेशावर पर जीत हासिल करने हेतु ई॰ 1823. में महाराजा रणजीत सिंह ने वहाँ एक विशाल सेना भेज दी। उस समय सिक्खों ने वहाँ जहांगीर और नौशहरा की लड़ाइयो में पठानों को करारी हार दी और पेशावर राज्य पर जीत प्राप्त कर ली। महाराजा की अगवाई में ई॰ 1834 में पेशावर को पूर्ण सिक्ख साम्राज्य में सम्मलित कर लिया गया।

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लद्दाख की विजय (ई॰ 1836)
ई॰ 1836 में महाराजा रणजीत सिंह के सिक्ख सेनापति जोरावर सिंह ने लद्दाख पर आक्रमण किया और लद्दाखी सेना को हरा कर के लद्दाख पर आधिपत्य हासिल कर लिया|

महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु
भारतीय इतिहास में अपनी जगह बनाने वाले प्रचंड पराक्रमी महाराजा रणजीत सिंह 58 साल की उम्र में सन 1839 में मृत्यु को प्राप्त हुए। उन्होने अपने अंतिम साँसे लाहौर में ली थी। सदियों बाद भी आज उन्हे अपने साहस और पराक्रम के लिए याद किया जाता है। सब से पहली सिख खालसा सेना संगठित करने का श्रेय भी महाराजा रणजीत सिंह को जाता है। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र महराजा खड़क सिंह ने उनकी गद्द्दी संभाली।

कोहिनूर हीरा
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद ई॰ 1845 में अंग्रेजों नें सिखों पर आक्रमण किया। फिरोज़पुर की लड़ाई में सिख सेना के सेनापति लालसिंह नें अपनी सेना के साथ विश्वासघात किया और अपना मोर्चा छोड़ कर लाहौर चला गया। इसी समय में अंग्रेज़ो नें सिखों से कोहिनूर हीरा लूट लिया, और साथ-साथ कश्मीर राज्य और हज़ारा राज्य भी छीन लिया। कोहिनूर हीरा लंदन ले जया गया और वहाँ ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया के ताज में जड्वा दिया गया। ऐसा कहा जाता है की कोहिनूर हीरे को ब्रिटेन की महारानी के ताज में लगाने से पहले जौहरीयों नें एक माह और आठ दिन तक तराशा था।

विशेष
महाराजा रणजीत सिंह में आदर्श राजा के सभी गुण मौजूद थे- बहादुरी, प्रजा प्रेम, करुणा, सहनशीलता, कुटिलता, चातुर्य और न्यायसंगतता। भारत वर्ष के इस महान तेजवंत शासक को हमारा आदर सहित प्रणाम।




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